बॉलीवुड सेलिब्रिटी न्यूट्रिशनिस्ट रुजुता दिवेकर, जिन पर करीना कपूर से लेकर आलिया भट्ट और वरुण धवन जैसे सितारे भरोसा करते हैं, ने हाल ही में Tweak India के यूट्यूब चैनल पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने कहा कि आज के दौर में ‘हेल्दी फूड’ के नाम पर बिकने वाली चीज़ें हमेशा हमारे लिए अच्छी नहीं होतीं।
मुख्य तथ्य
- रुजुता दिवेकर का कहना है कि हेल्दी फूड वही है जिसका नाम स्थानीय भाषा में मौजूद हो।
- न्यूट्रिशनिस्ट मीनू बालाजी के अनुसार, लोकल फूड्स गट हेल्थ और जीन के लिए ज़्यादा उपयुक्त होते हैं।
- लोकल खाने से कार्बन फुटप्रिंट घटता है और किसानों को भी सहयोग मिलता है।
- मौसम के हिसाब से लोकल फूड्स शरीर का तापमान संतुलित रखते हैं।
- एक्सपर्ट्स का मानना है कि पारंपरिक फूड्स बेस हों, लेकिन ज़रूरत पड़ने पर ग्लोबल फूड्स को संतुलन में शामिल किया जा सकता है।
भारत में फिटनेस और डाइट को लेकर सबसे भरोसेमंद नामों में से एक रुजुता दिवेकर हैं। हाल ही में उन्होंने एक्टर अहसास चन्ना से बातचीत के दौरान हेल्दी फूड्स को लेकर बड़ा बयान दिया। दिवेकर ने कहा कि सोशल मीडिया या दोस्तों की सलाह मानने से पहले एक सिंपल टेस्ट करना चाहिए – लैंग्वेज टेस्ट।
उनके अनुसार, अगर किसी खाने का नाम आपकी स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में नहीं है, तो वह आपके शरीर के लिए उतना उपयुक्त नहीं हो सकता। उन्होंने इसे क्लाइमेट क्राइसिस और इकोलॉजिकल बैलेंस से जोड़ते हुए कहा कि हमें वही खाना चाहिए जो हमारे पर्यावरण और शरीर दोनों के लिए सही हो।
लोकल फूड्स क्यों हैं ज़रूरी?
इस पर अपनी राय देते हुए मीनू बालाजी, चीफ न्यूट्रिशनिस्ट, प्रैग्मैटिक न्यूट्रिशन ने कहा कि जब हम लोकल फूड चुनते हैं, तो हम न सिर्फ अपनी सेहत सुधारते हैं बल्कि कार्बन फुटप्रिंट घटाने और किसानों को सपोर्ट करने में भी मदद करते हैं।
उन्होंने समझाया कि हमारे शरीर की गट माइक्रोबायोटा यानी आंतों में रहने वाले ट्रिलियन्स माइक्रोब्स हमारी डाइट और भौगोलिक स्थिति के अनुसार विकसित होते हैं। यही कारण है कि अलग-अलग देशों और संस्कृतियों के लोगों के गट हेल्थ पैटर्न अलग-अलग होते हैं।
मौसम और परंपराओं का महत्व
बालाजी ने आगे कहा कि लोकल फूड्स हमें सीज़नल पैटर्न के साथ भी जोड़ते हैं। गर्मियों में हम आम पन्ना, नारियल पानी या छाछ जैसी कूलिंग ड्रिंक्स पसंद करते हैं, वहीं सर्दियों में सूप और मिलेट्स जैसे एनर्जी-डेंस फूड्स हमें गर्म रखते हैं। लेकिन धीरे-धीरे हम अपने पारंपरिक फल, सब्ज़ियां और दादी-नानी के नुस्खों से दूर होते जा रहे हैं। इसका असर सिर्फ सेहत पर नहीं बल्कि बायोडायवर्सिटी और इकोलॉजिकल बैलेंस पर भी पड़ता है।
क्या सचमुच हर लोकल फूड पुराना है?
हालांकि इस पर एक दिलचस्प पहलू भी है। बालाजी के मुताबिक, यह कहना कि सिर्फ वही फूड लोकल है जिसका नाम स्थानीय भाषा में हो, पूरी तरह सही नहीं। उदाहरण के लिए, पत्ता गोभी और फूल गोभी जैसे सब्ज़ियां यूरोप से भारत आईं, लेकिन अब उनके स्थानीय नाम हैं और वे भारतीय खानपान का अहम हिस्सा हैं।
ग्लोबलाइजेशन की वजह से अब विदेशी फूड्स जैसे क्विनोआ या एवोकाडो आसानी से उपलब्ध हैं। बालाजी का सुझाव है कि हमें पारंपरिक खाने को बेस बनाना चाहिए, और ज़रूरत पड़ने पर ग्लोबल फूड्स को पोषण और वैरायटी बढ़ाने के लिए शामिल कर सकते हैं।


