अक्सर लोग कहते हैं—
यह पीढ़ी है उलझे दिमाग़ों की,
अकेले दिलों की,
टूटे हुए लोगों की।
पर सच तो यह है—
हर युग की साँसों में यही दरार रही है।
कभी मज़बूरी के नाम पर,
कभी युद्ध के नाम पर,
कभी प्रेम और खोने की पीड़ा के नाम पर।
इंसान हमेशा ही
अपने ही बोझ से दबा रहा है।
हाँ, हम भी बिखरे हैं,
हाँ, हमारे भीतर भी खालीपन है।
पर टूटना सिर्फ़ विनाश नहीं—
वह भीतर से एक नई शक्ल गढ़ती है।
अकेलापन सिर्फ़ सज़ा नहीं—
वह आत्मा को अपना आईना दिखाता है।
हम भी रास्ता तलाश लेंगे,
चाहे धीमे कदमों से ही सही।
हम भी प्यार करना सीखेंगे,
जीवन को थामना सीखेंगे,
अपने घावों से उजाला गढ़ना सीखेंगे।
हर पीढ़ी की तरह
हमारे भीतर भी वही चिंगारी है—
जो राख से उठकर
नई दिशा और नया उजाला रचती है।
और शायद यही
मनुष्य होने का अर्थ है—
टूटना, गिरना, सँभलना,
और फिर उस दर्द को
जीवन की नई भाषा में बदल देना।
– Vivek Balodi