अमेरिका की अर्थव्यवस्था ने तीसरी तिमाही में 4.3% की तेज़ वृद्धि दर्ज की, जो पहली नज़र में मज़बूती का संकेत देती है।
लेकिन इस चमकदार आंकड़े के पीछे एक कड़वी हकीकत छिपी है—नौकरियों की कमी और बढ़ती बेरोज़गारी, जिसने खासकर Gen Z और युवा कामकाजी वर्ग की चिंता बढ़ा दी है।
मुख्य तथ्य
- GDP ग्रोथ: तीसरी तिमाही में 3% सालाना दर
- बेरोज़गारी दर बढ़कर 6% हुई
- वास्तविक डिस्पोज़ेबल इनकम में 0% वृद्धि
- कंपनियों का मुनाफा 166 अरब डॉलर बढ़ा, लेकिन नई भर्तियां नहीं
- खर्च ज़्यादातर मजबूरी वाले सेक्टरों में, खासकर हेल्थकेयर
GDP बढ़ा, लेकिन नौकरी क्यों नहीं?
आमतौर पर जब अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ती है, तो उसका असर पहले नौकरियों पर, फिर वेतन पर और अंत में खर्च पर दिखता है। लेकिन इस बार तस्वीर उलटी है। खर्च बढ़ रहा है, जबकि नौकरियां नहीं। बेरोज़गारी दर 4.6% तक पहुंच गई है और खुद केंद्रीय बैंक प्रमुख ने चेताया है कि रोज़गार के आंकड़े ज़्यादा सकारात्मक दिखाए जा रहे हो सकते हैं।
इस स्थिति को अर्थशास्त्री असामान्य मान रहे हैं, क्योंकि महंगाई और बेरोज़गारी दोनों मौजूद हैं, फिर भी GDP तेज़ी से बढ़ रहा है।
कमाई नहीं बढ़ी, फिर खर्च कैसे?
तीसरी तिमाही में लोगों की वास्तविक आय में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। इसके बावजूद खर्च बढ़ा—लेकिन यह खर्च आत्मविश्वास से नहीं, मजबूरी से आया। सबसे बड़ा हिस्सा सेवाओं का रहा, खासकर हेल्थकेयर।
अस्पताल, आउटपेशेंट केयर, नर्सिंग सुविधाएं और नई वज़न घटाने वाली दवाओं पर खर्च तेज़ी से बढ़ा। यह ऐसा खर्च है जिसे टाला नहीं जा सकता। लोग बचत तोड़कर, कर्ज़ लेकर या दूसरे ज़रूरी फैसले टालकर यह बोझ उठा रहे हैं।
2026 की राहत या सिर्फ ‘मीठा झटका’?
आने वाले समय में टैक्स रिफंड और सैलरी से कटौती में बदलाव से कुछ समय के लिए लोगों की जेब में ज़्यादा पैसा आ सकता है। लेकिन विशेषज्ञ इसे अस्थायी राहत मानते हैं—एक तरह का sugar high।
असल समस्या यह है कि नौकरियां नहीं बन रहीं और वास्तविक आय स्थिर है। ऊपर से अगर इस अस्थायी नकदी से खर्च और बढ़ा, तो सर्विस सेक्टर की महंगाई और ज़्यादा जिद्दी हो सकती है।
दो हिस्सों में बंटी अर्थव्यवस्था
आज की अर्थव्यवस्था एक जैसी नहीं चल रही। एक तरफ अमीर और एसेट होल्डर हैं, जिनका खर्च शेयर बाज़ार, रियल एस्टेट और कॉरपोरेट मुनाफे से समर्थित है। दूसरी तरफ मध्यम और निम्न आय वर्ग है, जिनका खर्च मजबूरी से तय हो रहा है।
GDP का आंकड़ा इन दोनों को जोड़कर एक संख्या बना देता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत अलग है। महंगे ट्रैवल और प्रीमियम सेवाएं अब भी चल रही हैं, मगर उनका फायदा सीमित वर्ग तक सिमटा है।
कंपनियां बढ़ रही हैं, बिना लोगों के
कॉरपोरेट मुनाफा तेज़ी से बढ़ा है, लेकिन निवेश और भर्तियां नहीं। कई कंपनियां पुरानी इन्वेंट्री घटा रही हैं और लागत संभाल रही हैं।
आज की प्रोडक्टिविटी का बड़ा हिस्सा नई तकनीक से नहीं, बल्कि कम लोगों से ज़्यादा काम लेने से आ रहा है। यानी कंपनियां सीख चुकी हैं कि बिना नई नौकरियां दिए भी ग्रोथ दिखाई जा सकती है।
Gen Z के लिए खतरे की घंटी
जब ग्रोथ रोजगार से कट जाती है, तो सबसे ज़्यादा असर युवाओं पर पड़ता है। अगर शेयर बाज़ार या बड़े एसेट्स में ज़रा-सी भी गिरावट आई, तो ऊपरी तबके का खर्च भी तेजी से घट सकता है।
ऐसी अर्थव्यवस्था, जो नौकरी नहीं बल्कि सिर्फ मुनाफे और एसेट्स पर टिकी हो, लंबे समय तक स्थिर नहीं रह सकती—और यह सब तब हो रहा है, जब बड़े पैमाने पर नई तकनीक का असर अभी पूरी तरह शुरू भी नहीं हुआ है।


